भारत की आर्थिक व्यवस्था में बैंकों की भूमिका सिर्फ पैसे जमा करने और लोन देने तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह पूरे वित्तीय सिस्टम की रीढ़ मानी जाती है। ऐसे में जब लोन वापस नहीं आते तो Non-Performing Assets यानी NPA बढ़ने लगते हैं। दूसरी ओर Reserve Bank of India यानी RBI की मौद्रिक नीति (Monetary Policy) इस पूरे सिस्टम को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाती है। आइए सरल शब्दों में समझते हैं कि मौद्रिक नीति और NPA के बीच क्या गहरा संबंध है।
सबसे पहले, दोनों को समझें!
किसी भी संबंध को समझने से पहले, उसके दोनों किरदारों को जानना ज़रूरी है।
1. RBI की मौद्रिक नीति (Monetary Policy)
मौद्रिक नीति वह ‘जादू की छड़ी’ है जिसका उपयोग RBI (भारत का केंद्रीय बैंक) मुद्रास्फीति (Inflation) को नियंत्रित करने और देश के आर्थिक विकास को समर्थन देने के लिए करता है। इसका मुख्य लक्ष्य अर्थव्यवस्था में पैसे के प्रवाह को नियंत्रित करना है।
मुख्य हथियार:
- रेपो रेट (Repo Rate): वह दर जिस पर RBI अन्य बैंकों को पैसा उधार देता है।
- रिवर्स रेपो रेट (Reverse Repo Rate): वह दर जिस पर बैंक अपना पैसा RBI के पास रखते हैं।
- नकद आरक्षित अनुपात (CRR) और वैधानिक तरलता अनुपात (SLR): वह राशि जो बैंकों को RBI के पास या तरल संपत्ति के रूप में रखनी होती है।
जब RBI इनमें बदलाव करता है, तो इसका सीधा असर बैंकों द्वारा दिए जाने वाले लोन की ब्याज दरों पर पड़ता है।
2. NPA (Non-Performing Assets) क्या है?
सरल शब्दों में, जब कोई बैंक किसी व्यक्ति या कंपनी को लोन देता है, और वह 90 दिनों या उससे अधिक समय तक उस लोन का मूलधन या ब्याज नहीं चुका पाता है, तो वह लोन बैंक के लिए NPA यानी खराब संपत्ति बन जाता है।
उदाहरण के लिए: मान लीजिए आपने बैंक से होम लोन लिया। अगर आप लगातार तीन महीने तक उसकी EMI नहीं भर पाते हैं, तो तकनीकी रूप से आपका लोन बैंक के बहीखाते में NPA बन जाता है। यह बैंकों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है क्योंकि इससे उनका मुनाफा घटता है और उनकी वित्तीय सेहत खराब होती है।
NPA और मौद्रिक नीति का ‘गहरा रिश्ता’
यह रिश्ता एक दोतरफा सड़क जैसा है। RBI की नीति NPA को प्रभावित करती है, और उच्च NPA RBI को अपनी नीति में बदलाव करने के लिए मजबूर कर सकते हैं।
1. ब्याज दरें और NPA
यह शायद सबसे सीधा और महत्वपूर्ण संबंध है।
RBI की नीति का एक्शन | बैंकों पर असर | NPA पर संभावित असर |
रेपो रेट बढ़ाना (महंगी मौद्रिक नीति) | लोन की ब्याज दरें बढ़ती हैं। | बढ़ोतरी: EMI महंगी हो जाती है। देनदारों के लिए किश्तें चुकाना मुश्किल हो जाता है, जिससे NPA बढ़ सकता है। |
रेपो रेट घटाना (सस्ती मौद्रिक नीति) | लोन की ब्याज दरें घटती हैं। | कमी: EMI सस्ती हो जाती है। देनदारों पर दबाव कम होता है, और नया व्यापार/उद्योग स्थापित होता है, जिससे NPA को कम करने में मदद मिलती है। |
मानवीय पहलू: जब मंदी का माहौल होता है और RBI रेपो रेट बढ़ाता है, तो नौकरी गंवाने वाले या छोटे व्यवसायी के लिए बढ़ी हुई EMI चुकाना “सोने पे सुहागा” (बुरी स्थिति को और खराब करना) जैसा हो जाता है। यही वह जगह है जहाँ मानव भावनाओं का सीधा टकराव वित्तीय नीतियों से होता है।
2. तरलता (Liquidity) और NPA
RBI CRR और SLR जैसे उपकरणों का उपयोग करके बाज़ार में नकदी (तरलता) की मात्रा को भी प्रभावित करता है।
- जब तरलता कम होती है (पैसे की कमी), तो बैंक लोन देने में सख्त हो जाते हैं और केवल सबसे सुरक्षित उधारकर्ताओं को ही लोन देते हैं। इससे NPA कम हो सकता है, लेकिन आर्थिक विकास धीमा हो जाता है।
- जब तरलता अधिक होती है (पैसा बहुतायत में), तो बैंक अधिक जोखिम लेने को तैयार हो सकते हैं, जिससे कुछ NPA का जोखिम बढ़ जाता है।
3. NPA का RBI की नीति पर प्रभाव
अगर बैंकिंग सिस्टम में NPA बहुत अधिक हैं, तो RBI को अपनी नीति बनाने में अधिक सावधान रहना पड़ता है।
- रुकावट: उच्च NPA वाले बैंक नया लोन देने में हिचकिचाते हैं, भले ही RBI ने रेपो रेट कम कर दिया हो। यह मौद्रिक नीति के लाभ को अर्थव्यवस्था तक पहुँचने से रोक देता है, जिसे ‘पॉलिसी ट्रांसमिशन’ की समस्या कहते हैं।
- वित्तीय स्थिरता: उच्च NPA वित्तीय स्थिरता के लिए खतरा पैदा करते हैं। इसलिए, RBI को कई बार NPA की समस्या को दूर करने के लिए विशेष उपाय (जैसे परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा – AQR) करने पड़ते हैं, जो उसकी सामान्य मौद्रिक नीति से अलग होते हैं।
निष्कर्ष: आपके लिए क्या मायने रखता है?
यह संबंध स्पष्ट रूप से दिखाता है कि RBI की मौद्रिक नीति सिर्फ ब्याज दरों का खेल नहीं है; यह एक संतुलनकारी कार्य (Balancing Act) है। RBI को महंगाई को नियंत्रित करने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करना होता है कि बैंकों की वित्तीय सेहत अच्छी रहे और NPA नियंत्रण में रहें।
एक जागरूक नागरिक के रूप में, इन नीतियों को समझना आपको सही समय पर लोन लेने या निवेश करने में मदद करता है। जब दरें सस्ती हों, तो आप होम लोन लेने का विचार कर सकते हैं; और जब दरें बढ़ें, तो आपको अपने खर्चों पर थोड़ा अंकुश लगाने की ज़रूरत हो सकती है।
याद रखें: स्वस्थ बैंक, स्वस्थ अर्थव्यवस्था! और NPA को कम रखना ही बैंकों को स्वस्थ रखने की पहली सीढ़ी है।